(माताश्री )
हे माँ तू अमृत घट है री
कण कण मेरे प्राण समायी
मै अबोध बालक हूँ तेरा
पूजूं कैसे तुझको माई
बिन तेरे अस्तित्व कहाँ माँ
बिन तेरे मेरा नाम कहाँ ?
तू है तो ये जग है माता
तू ही मेरी भाग्य विधाता
ऊँगली पकडे साहस देती
दिल धड़के जो धड़कन देती
नब्ज है मेरी सांस भी तू ही
गुण संस्कृति की खान है तू ही
देवी में तू कल्याणी है
प्रकृति पृथिव्या सीता तू है
तू गुलाब है तू सुगंध है
पूत प्रीत ‘माँ ‘ गंगा तू है
धीरज धर्म है साहस तू माँ
लगे चोट मुख निकले माँ माँ
तेरा सम्बल जीवन देता
देख तुझे मै आगे बढ़ता
आँचल तेरा सर है जब तक
नहीं कमी जीवन में तब तक
रश्मि तू सूरज की लाली
बिना स्वार्थ जीवन भर पाली
सारे दर्द बाल के सह के
भूखी प्यासी मेहनत कर के
तूने जो स्थान बनाया
देव मनुज ना कोई पाया
तू मन मस्तिष्क रग रग छायी
पल पल माँ है आँख समायी
आँख सदा बालक पर रखती
पीड़ा पल में जो है हरती
उस माँ को शत नमन हमारा
माँ माँ जपे तभी जग सारा
माँ की ममता बड़ी निराली
तभी तो पूजे जग-कल्याणी
अंत समय तक माँ संग रखना
न हो जुदा दिल में बस रहना
===================
सत्यम शुक्ल ( रचना अपने पिताश्री के ब्लॉग से )
बच्चे मन के सच्चे हैं फूलों जैसे अच्छे हैं मेरी मम्मा कहती हैं तुझसे जितने बच्चे हैं सब अम्मा के प्यारे हैं --
2 comments:
सुन्दर ..... माँ को नमन
प्रिय चैतन्य माँ की ममता अनमोल है आप की प्यारी प्रतिक्रिया के लिए आभार
भ्रमर ५
Post a Comment