बच्चे मन के सच्चे हैं फूलों जैसे अच्छे हैं मेरी मम्मा कहती हैं तुझसे जितने बच्चे हैं सब अम्मा के प्यारे हैं --
सत्यम शुक्ल
सच की तावीज
दादी माँ मै सोना चाहूं
दे-ना चाहे तो लोरी गाये
मुझे सुला दे !!
दुल्हन दे -या -चाँद खिलौना
थाली में परछाईं या फिर
तारों की बारात दिखा दे
दूध दही टानिक मन चाहे
मुस्काए तो दादी अम्मा
चूने का ही घोल पिला दे
रंग -बिरंगे परिधानों से सज-
गाडी चढ़
कान्वेंट स्कूल भिजा दे
मन क्यों बोझिल??
कागज़ दे लकड़ी के टुकड़े -
प्राईमरी पैदल पहुंचा दे
हवा चले भी कुछ टूटे ना
मुस्काए वे घूम रहे हैं
नम क्यों आँखें -पट्टी बाँधे
चलूँगा मै भी बोझ उठाये
चलें वे उड़कर वर्दी सजकर -
मेवे खाएं !!
पेट तुम्हारा मै भी भरकर
सर आँखों में तुझे बिठाकर -
चलूँ उठाये !!
महल उठाये नाम कमाए
‘धन’-‘ लालच’ कुछ शीश झुकाए
रोशन तेरा नाम करूँगा -"कुटिया " में
दुनिया खिंच आये
गर्व भरे तू शीश उठाये !!
‘दादी’ –‘माँ’ -सपने ना मुझको
सच की तू तावीज बंधा दे
हंसती रह तू दादी अम्मा
आँचल सर पर मेरे डाले
मार पीट कर उसे गिराकर
‘पहलवान’ जो ना बन पाऊँ
दे ऐसा ‘आशीष’ मुझे माँ
‘आँखों का तारा’ बन जाऊं
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
२०.०८.१९९४( लेखन हजारीबाग-झारखण्ड )
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