बच्चे मन के सच्चे हैं फूलों जैसे अच्छे हैं मेरी मम्मा कहती हैं तुझसे जितने बच्चे हैं सब अम्मा के प्यारे हैं --
चार बजे जब मुर्गा बोले पौ फटते ही उठना
अम्मा देखो मेरी खिड़की
दस दस चिड़ियाँ क्यों आ जाती
चूं चूं चूं चूं
भिनसारे ही मुझे उठाती
इनको ना है पढना लिखना
चूल्हा चौका ना कुछ काम
दिन भर खाली गाना गाती
करती चिड़ियों को बदनाम
देर रात तक मै पढता हूँ
प्रात काल ही मुझे उठातीं
अलसाया मै दिन भर घूमूं
थका-जम्हाई मुझको आती
अम्मा बोली मेरे प्यारे
कल से जल्दी सोना
देती वे सन्देश तुम्हे कि
चार बजे जब मुर्गा बोले
पौ फटते ही तुमको उठना
मलयागिरि की चली हवाएं
तांबे सा सूरज है निकला
कमल फूल सब खिले हुए हैं
शीतल नदिया स्वर्णिम धारा
जैसे दुल्हन उषा सजी है
टेसू लाल महकते फूल
मन -मयूर सब नाच रहे हैं
खिंचे सभी आते -घर भूल
घूम रहे हैं सब बतियाते
निर्मल मन -गंगा की धारा
झरना झर -झर दौड़ा मिलता
कल-कल -कल-कल
नदिया बहती चली -उमड़ती
सागर -प्रिय-ने उसे पुकारा
सुबह-सुबह कुछ बादल आये
हाथ मिला ताकत दिखलाये
इंद्र-धनुष सा रंग दिखाए
मोहे मन बहला-फुसलाये
चंदा को ले गए -उड़ाए
उजियारा देती वो चंदा
रात-रात में जाग रही थी
घूम रही थी तारों के संग
रजनी देखो -कितना रोई
मोती सा आंसू छलकाए
सूरज 'काका' को देखे ही
चंदा तारे -रजनी सारे
डर के मारे छुपे -छुपाये
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
13.04.2011
4 comments:
बहुत सुंदर है कविता....
चैतन्य जी धन्यवाद बाल रस आप को बहुत भाता है तभी तो आप चैतन्य से खिले हो
रचना बहुत सुन्दर है ...लेकिन बच्चों के हिसाब से थोड़ी लंबी है ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें
आदरणीय संगीता जी आप के हिंदी और कविता के रुझान को देख मन खुश हुआ , चूंकि इस बाल जगत में मै नया हूँ कोशिश करूँगा छोटी रचना छोटे नन्हे मुन्नों के लिए , मेरी तो आदत पड़ गयी है भ्रमर के दर्द और दर्पण में लम्बे दर्द ले चलने की न इसलिए बात पूरी होती ही नहीं अपना सुझाव व् समर्थन भी दीजिये न ! शब्द जांच में हटा ले रहा हूँ
धन्यवाद
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
Post a Comment